इन दिनों बन रहे समाज में बच्चों की स्कूल जाने की उम्र घटती जा रही है। दो-तीन वर्ष के बच्चों पर शिक्षा का बोझ लादा जा रहा है।यह बचपन पर बोझ है , इसका प्रमाण इससे अधिक और क्या हो सकता है कि अस्पतालों में आधी से अधिक भीड़ बच्चों की होती है। छोटी सी उम्र में बच्चो की आखों पर मोटे-2 चश्मे लग जाते हैं। विकास और आधुनिकता के नाम पर हमारे चारों ओर जो घेरा बन गया है, वह अभिमन्यु के चक्र की भाँति हो गया है, जिसमे प्रवेश तो आसानी से कर सकते है, परन्तु बाहर निकलने का कोई रास्ता नही दिखाई देता हैं । यहाँ मुद्दा हमारी बाल पीढ़ी का है, जो खेलने कूदने की उम्र में भविष्य को लेकर इतने चिंतित रहते है, की मानसिक तनाव का शिकार होने लगे हैं।

यहाँ जगजीत सिंह का एक ग़ज़ल सटीक बैठती है की……ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी,मगर मुझको लौटा दो वो बचपन का सावन, वो कागज की कश्ती,वो बारिश का पानी। बचपन बहुत अनमोल समय होता है, परंतु आज की मशीनीकृत जीवन ने इसे छतिग्रस्त कर दिया है। बचपन है तो भविष्य है, बालमन की इस बोझिल पढ़ाई से मुक्ति से मुहिम जरूरी है ,ताकि हमारी बाल पीढ़ी मुस्कुराने से महरूम ना हो जाए।