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Thursday, March 23, 2023

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लंबे अंतराल के बाद फिर से रंगकर्मियों ने दिखाई अपनी कला

25 अगस्त – दिल्ली | 18 वीं सदी के आखिरी हिस्से में जब बनारस में चारो ओर कुव्यवस्था फैली हुई थी। अंग्रेजों और उनके वफादारों ने पूरे बनारस में आतंक का माहौल बना रखा था, तब बाबू नन्हकू सिंह किसी की नजर में गुंडा थे तो किसी के लिए रॉबिनहुड । इस नायक की कहानी संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार के तत्वाधान में मयूर विहार फेस 1 के यूनिकॉर्न एक्टर्स स्टूडियो में नाटक गुंडा के रूप में प्रस्तुत की गई। इसका मंचन यूनिकॉर्न एक्टर्स स्टूडियो के सदस्यों ने किया और मंचित शहर के वरिष्ठ निर्देशक हैप्पी रंणजीत ने। कहानी गुंडा चर्चित कथाकार जयशंकर प्रसाद की सुप्रसिद्ध कहानियों में से एक है।

पिछले करीब डेढ़ साल से कोरोना माहमारी की मार झेल रहे रंगमंच के कलाकारों को कोविड के दौरान पहली बार मंच पर उतरने का मौका मिला, जिसकी अनुमति संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार ने दी, जिसके लिये रंगमंच के कलाकारों ने मंत्रालय का धन्यवाद किया।
नन्हकू सिंह था तो गुंडा पर करता था गरीबों की मदद
वह पचास वर्ष से ऊपर था, तब भी युवकों से अधिक बलिष्ठ और दृढ़ था, चमड़े पर झुर्रियां नहीं पड़ी थीं, वर्षा की झड़ी में, पूस की रातों की छाया में, कड़कती जेठ की धूप में, नंगे शरीर घूमने में वह सुख मानता था। उसकी चढ़ी हुई मूंछ बिच्छू के डंक की तरह, देखने वालों के आंखों में चुभती थीं। उसका सांवला रंग सांप की तरह चिकना और चमकीला था। उसकी नागपुरी धोती का लाल रेशमी किनारा दूर से ही ध्यान आकर्षित करता। कमर में बनारसी सेल्हे का फेंटा, जिसमें सीप की मूंठ का बिछुआ खुंसा रहता था।

नाटक में दिखाया गया है कि गुंडा कहे जाने वाले बाबू नन्हकू सिंह एक प्रतिष्ठित जमींदार का पुत्र है। दोनों हाथों से अपनी संपत्ति लुटाता है। जुआ खेलने की उसे आदत है लेकिन जुआ में जीते रुपयों को भी वह लोगों में लुटा देता है। तमोली की दुकान पर मशहूर नाचने वाली दुलारी बाई के गीत सुनना उसे काफी पसंद था लेकिन कभी भी दुलारी बाई की ड्योढ़ी उसने नहीं लांघी थी। बाबू नन्हकू सिंह अपनी दौलत गरीबों, बेबसों और मजबूरों पर खर्च करता है। उसने जाने कितनी ही लड़कियों की शादी करवाई और बहुत सी विधवाओं के तन ढ़के। लेकिन अपने स्वाभिमान से उसने कभी समझौता नहीं किया, गलत करने वालों की पिटाई करते देर भी नहीं करता है वह।

नाटक में दिखाया गया कि जब पूरे शहर पर अंग्रेजों का संरक्षण पाकर कुबरा मौलवी अत्याचार करने लगता है और 1781 में काशी डांवांडोल होने लगती है। काशी नरेश चेत सिंह को राजमाता पन्ना के साथ कैद कर लिया जाता है। इसके बाद काशी का यह गुंडा बहादुरी का परिचय देते हुए अकेले ही उन्हें मुक्त कराने के लिए निकल पड़ता है। नाटक में इस गुंडे की इंसानियत ने दर्शकों को खासा प्रभावित किया। नाटक में कलाकारों ने उम्दा अभिनय कर 18वीं सदी के बनारस और बाबू नन्हकू सिंह की कहानी को जीवंत कर दिया।

गुंडा कहानी के पात्र बहुत ही सशक्त हैं। इस के पात्रों में नन्हकू सिंह का किरदार शौर्य शंकर ने निभाया है और मलूकी – अंकुश तिवारी,  दुलारी – हेमा, पन्ना – रचिता सहित कहानी के अन्य किरदारों को रंगकर्मियों ने बखूबी पेश किया है। नन्हकू सिंह बाबू निरंजन सिंह के पुत्र हैं साथ ही पन्ना से प्रेम करते हैं लेकिन प्रेम में असफल होने के बाद गुंडा का रूप धारण कर लेते हैं। पन्ना को प्राप्त ना कर सकने के बावजूद उनकी प्रेम भावना पन्ना के प्रति कम नहीं होती है।

संकटा के दौरान पन्ना एवं उसके पुत्र चेतन सिंह को बचाने के लिए नन्हकू सिंह अपना सर्वस्व निछावर करने के लिए तत्पर हो जाते हैं। यही उनके चरित्र का सर्वाधिक उदात्त पक्ष है।

गुंडा कहानी का उद्देश्य


गुण्डा कहानी, एक ऐसा प्रेम जिसमें वासना नहीं केवल भावना है। कहानी का नायक नन्हकू सिंह अपने प्रेम को प्राप्त न कर सकने के कारण अपना जीवन उद्देश्य बदल देता है। लेकिन चरित्र को नहीं गिराता। वह प्रारंभिक प्रेम के ताप को जीवन पर्यंत महसूस करता है और अविवाहित रहता है।

दिल्ली के मयूर विहार फेस 1 के यूनिकॉर्न एक्टर्स स्टूडियो में हुए जयशंकर प्रसाद के गुंडा नाटक को देखने के बाद दर्शकों ने खूब सराहना की और उम्मीद जताई की अब थियेटर फिर जिंदा हो उठेगा, आगे भी इस तरह के रंगमंच देखने को मिलेेंगे।

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