तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्। सुखसंगेन बध्नाति ज्ञानसंगेन चानघ। (6)
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासंगसमुद्भवम्। तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसंगेन देहिनम्।। (7)
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्। प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत।। (8)
सत्त्वं सुखे संजयति रज: कर्मणि भारत। ज्ञानमावृत्य तु तम: प्रमादे संजयत्युत।। (9)
रजस्तमश्चभिभूय सत्त्वं भवति भारत। रज: सत्त्वं तमश्चैव तम: सत्त्वं रजस्तथा।। (10)
भावार्थ
हे निष्पाप, उन तीनों गुणों में सत्वगुण तो निर्मल होने के कारण प्रकाश करने वाला और विकाररहित है, वह सुख के सम्बंध से और ज्ञान के सम्बन्ध से अर्थात् उसके अभिमान से बांधता है।
हे अर्जुन, रागरूप रजोगुण को कामना और आसक्ति से उत्पन्न जान। वह इस जीवात्मा को कर्मों के और उनके फल के सम्बंध से बांधता है।
हे अर्जुन, सब देहाभिमानियों को मोहित करने वाले तमोगुण को तो अज्ञान से उत्पन्न जान। वह इस जीवात्मा को प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा बांधता है।
हे अर्जुन, सत्वगुण सुख में लगाता है और रजोगुण कर्म में तथा तमोगुण तो ज्ञान को ढककर प्रमाद में भी लगाता है।
हे अर्जुन, रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्वगुण, सत्वगुण और तमोगुण को दबाकर रजोगुण, वैसे ही सत्वगुण और रजोगुण को दबाकर तमोगुण होता है अर्थात बढ़ता है।